Wednesday, 20 July 2011

स्टैनले का डब्बा: भूख की ऐंठन-सी

निर्देशकः अमोल गुप्ते
कलाकारः अमोल गुप्ते, दिव्या दत्ता, पार्थो गुप्ते
यह फिल्म देखते हुए आप वेदना से भर जाते हैं. जैसे किसी निरीह फाख्ता को पिंजरे में फड़फड़ाते देख रहे हों.
इसमें एक गहरी भावपूर्ण कहानी तो खैर है ही, इसे अभिनीत नहीं किया गया है. इसकी बजाए कहानी के छोटे-बड़े मोड़ पर कलाकारों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया भर है. न तो चेहरों के अतिनाटकीय क्लोजअप, न ही डायलॉग में किसी तरह का खिलंदड़ापन.
चौथी कक्षा का स्टैनले (पार्थो) लंच बॉक्स लेकर नहीं आता क्योंकि उसका परिवार नहीं है. कभी दोस्त खिला देते हैं, कभी वह भरपेट पानी पीकर ही रह लेता है.
स्टैनले के दूसरी ओर हैं हिंदी के टीचर वर्मा (अमोल गुप्ते). वे मंगलवार को अंडा नहीं खाते. वैसे छात्रों/शिक्षकों के टिफिन का कुछ भी नहीं छोड़ते. वडापाव, रोटी, जलेबी कुछ भी मिले. सीधे नहीं तो टेढ़ी उंगली से सही.
पूरी फिल्म कमोबेश स्टैनले की कक्षा पर ही घूमती है. छात्रों और उनके शिक्षकों के अच्छे-बुरेपन के नुक्ते उजागर करते हुए.
स्टैनले का असल किस्सा अंत में खुलता है. उस वक्त सिनेमाहाल में कई बच्चों और बड़ों को आप सुबकते देख सकते हैं. पूरी कहानी भूख की ऐंठन-सी बनकर सामने आती है. लगातार एक कसमसाहट पैदा करती हुई. यह फिल्म एक नई खोज जैसी है क्योंकि हिंदी सिनेमा में पहली बार 7डी कैमरे से इसे फिल्माया गया है.
नन्हा-सा होने की वजह से बच्चे इस कैमरे को लेकर 'काशस' नहीं हुए. नतीजे में उनके भाव, प्रतिक्रियाएं और आसपास का पूरा माहौल सब कुछ नितांत स्वाभाविक रूप में उतरकर आया है. तारे जमीं पर  के लेखक और क्रिएटिव डायरेक्टर अमोल गुप्ते दिखाते हैं कि बाल सिनेमा के लिए कितनी संभावनाएं समेटे हुए हैं वे. और उनका प्रतिभावान पुत्र पार्थो भी.

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